प्राचीनकाल से ही सद्गुरु भगवान दत्तात्रेयने अनेक ऋषि-मुनियों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यो को सद्ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ किया है। इन्होंने परशुरामजीको श्रीविद्या-मंत्र प्रदान किया था। त्रिपुरारहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ रहस्यों का उपदेश मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि शिवपुत्रकार्तिकेय को दत्तात्रेयजीने अनेक विद्याएं प्रदान की थीं। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें अच्छा राजा बनाने का श्रेय इनको ही जाता है। सांकृति-मुनिको अवधूत मार्ग इन्होंने ही दिखाया। कार्तवीर्यार्जुनको तन्त्रविद्याएवं नार्गार्जुनको रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेयने ही बताया था। परम दयालु भक्तवत्सल भगवान दत्तात्रेयआज भी अपने शरणागत का मार्गदर्शन करते हैं और सारे संकट दूर करते हैं। मार्गशीर्ष-पूर्णिमा इनकी प्राकट्य तिथि होने से हमें अंधकार से प्रकाश में आने का सुअवसर प्रदान करती है।
तन्त्रशास्त्रके मूल ग्रन्थ रुद्रयामल के हिमवत् खण्ड में शिव-पार्वती के संवाद के माध्यम से श्रीदत्तात्रेयके वज्रकवचका वर्णन उपलब्ध होता है। इसका पाठ करने से असाध्य कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं तथा सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस कवच का अनुष्ठान कभी भी निष्फल नहीं होता। इस कवच से यह रहस्योद्घाटनभी होता है कि भगवान दत्तात्रेयस्मर्तृगामीहैं। यह अपने भक्त के स्मरण करने पर तत्काल उसकी सहायता करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ये नित्य प्रात:काशी में गंगाजीमें स्नान करते हैं। इसी कारण काशी के मणिकर्णिकाघाट की दत्तपादुकाइनके भक्तों के लिये पूजनीय स्थान है। वे पूर्ण जीवन्मुक्त हैं। इनकी आराधना से सब पापों का नाश हो जाता है। ये भोग और मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं।
हमें अपने जीवन में हर एक वास्तु , प्राणी और मनुष्य से उनकी अच्छी बात सीख लेना चाहिए ; जैसे भगवान् दत्तात्रेय ने किया .
दत्तात्रेय भगवान के २४ गुरु
दत्त गुरु ने अपने जीवन में २४ गुरु माने । २४ की सूची में सब स्तर के मानवही नहीं पशु, पक्षी और अन्य स्थावर-जंगम वस्तुएँ भी है। जब जीवनदर्शन का मूल तत्व पकड़ में आ जाता है तो उसे आचरण में लाने की शिक्षा सभी से ली जा सकती है। यह महाशिष्यत्व सामाजिक कार्यकर्ता के लिये अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति व जीवन के प्रत्येक अनुभव से शिक्षा प्राप्त करने की तत्परता व क्षमता दोनों ही हमारे लिये आवश्यक है। साथही जब हमको पता होता है कि हमने कितने लोगों की कृपा से यह ज्ञान व कौशल प्राप्त किया है तो अहंकार के बढ़ने की सम्भावना भी कम होती है। सीखते तो हम सभी है अपने परिवेष से, पर उसका भान नहीं रखते और इस कारण श्रेय को भी बाँटने की जगह स्वयं का ही मान लेते है। दत्तात्रेय का जीवन हमे बताता है कि छोटी से छोटी शिक्षा को देने वाले के गुरुत्व को स्वीकार करों। इसी गुण के कारण वे स्वयं आदर्श गुरु भी है। प्रत्येक कार्यकर्ता को ये दोनों दायित्व निभाने होते है। सारे जीवन पर्यन्त हम शिष्य भी बने रहते है और गुरु भी।जिससे भी हमें कुछ भी सीखने को मिले उसे गुरु मान कर सम्मान दे ; यही हमें दत्त गुरु ने सिखाया .
उनके २४ गुरु थे __
पृथ्वी, हवा, आकाश, अग्नि, सूर्य, कबूतर,अजगर, समुद्र, कीट, हाथी , चींटी, मछली , वेश्या, तीर निर्माता, शिशु, चंद्र, मधुमक्खी , हिरन , शिकारी पक्षी, युवती,साप, मकड़ी ,इल्ली और पानी
पृथ्वी - धैर्य और क्षमा की शिक्षा ली
हवा -यह हर जगह बहती है पर किसी के गुण अवगुण नहीं लेती , निरासक्त रहती है . प्राणवायु मात्र भोजन की कामना करती है और प्राण बचाने के लिए मात्र भोजन की अपेक्षा करती है और संतुष्ट रहती है .
आकाश - जिस प्रकार आकाश में सब कुछ है उसी तरह हर आत्मा में एकता को देखना चाहिए .
जल - जिस तरह गंगाजल दर्शन , नामोछारण और स्पर्श से ही पवित्र कर देता है , हमें भी वैसा ही बनाने का प्रयत्न करना चाहिए .
अग्नि - की तरह तेजमय रहे और किसी के तेज से दबे नहीं . अग्नि की तरह सब का भोग करते हुए भी सब कुछ हजम कर जाए उसमे लिप्त ना होवे .
चन्द्र - जिस प्रकार चन्द्र कला घटती बढती है पर मूल चन्द्रमा तो वही रहता है ; वैसे ही शरीर की कोई भी अवस्था हो आत्मा पर उसका कोई असर ना हो .
सूर्य - जिस प्रकार सूर्य अपने तेज से पानी खिंच लेता है और समय पर उसे बरसा भी देता है वैसे ही हमें इन्द्रियों से विषय भोग कर समय आने पर उसका त्याग भी कर देना चाहिए .
कबूतर - जिस तरह कबूतर अपने साथी , अपने बच्चों में रमे रहकर सुख मानता है और असली सुख परमात्मा के बारे में कुछ नहीं जानता , मूर्ख इंसान भी ऐसे ही अपनों के मोह में उनके संग को ही सुख मानता है .
अजगर - जिस प्रकार अजगर को पड़े पड़े जो शिकार मिल गया उसे खाकर ही संतुष्ट रहता है अन्यथा कई दिनों तक भूखा भी रह लेता है , हमें भी जो प्रारब्ध से मिल जाए उसमे सुखी रहना चाहिए .
समुद्र - की तरह सदा प्रसन्न और गंभीर, अथाह , अपार और असीम रहना चाहिए .
पतंगा - जिस प्रकार अग्नि से मोहित हो कर उसमे जल मरता है , वैसे ही इन्द्रियसुख से मोहित प्राणी विषय सुख में ही जल मरते है .
भौरा - जिस प्रकार हर फुल का रस लेता है उसी प्रकार हमें भी जीवन में हर घर से कुछ उपयोगी मांग लेना चाहिए.अनावश्यक संग्रह नहीं करना चाहिए .
मधुमक्खी - जिस प्रकार संग्रह कर के रखती है और अंत में उसी के कारण मुसीबत में पद जाती है , हमें भी अनावश्यक संग्रह से बचना चाहिए .
हाथी - जिस प्रकार काठ की स्त्री का स्पर्श कर उसी से बांध जाता है कभी स्त्री को भोग्या ना माने .
मधु निकालने वाले से - जैसे मधुमक्खी का संचित मधु कोई और ही भोगता है ; वैसे ही हमारा अनावश्यक संचित धन कोई और ही भोगता है .
हिरन - जिस प्रकार गीत सुन कर मोहित होजाल में फंस जाते है वैसे ही सन्यासियों को विषय भोग वाले गीत नहींसुनाने चाहिए .
मछली - जिस प्रकार कांटे में लगे भोजन के चक्कर में प्राण गंवाती है ; मनुष्य भी जिव्हा के स्वाद के लालच में अपने प्राण गंवाता है .
पिंगला वेश्या -के मन में जब वैराग्य जागा तभी वो आशा का त्याग कर चैन की नींद सो सकी .आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा सबसे बड़ा सुख .
शिकारी पक्षी -जब अपनी चोंच में मांस का टुकडा ले कर जा रहा था तो दुसरे पक्षी उसे चोंच मारने लगे . जब उसने उसटुकड़े को छोड़ दिया तभी सुख मिला . वैसे ही प्रिय वस्तु को इकट्ठा करना ही दुःख का कारण है .
युवती - धान कुटती हुई युवती के हाथ कीचूड़ियाँ जब शोर कर रही थी तो उसने परेशान हो कर सब निकाल दी सिर्फ १-१ हाथ में रहने दी .जब कई लोग साथ में रहते है तो कलह अवश्यम्भावी है .
बाण बनाने वाला -आसन और श्वास जीत कर वैराग्य और अभ्यास द्वारा मन को वश करलक्ष्य में लगाना .
सर्प - की तरह अकेले विचरण करना . मठ - मंडली से दूर रहना.
मकड़ी - जैसे अपने मुंह से जाल फैलाती है , उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल लेती है इश्वर बी जग को बना कर, उसमे रह कर , फिर अपने में लीन कर लेते है .
इल्ली -इल्ली जिस प्रकार ककून में बंदहो कर दुसरे रूप का चिंतन कर वह रूप पालेती है , हम भी अपना मन किसी अन्य रूप से एकाग्र कर वह स्वरूप पा सकते है .
कथा :-
ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णित है कि सत्ययुग में गुरुपदेशपरम्परा के क्षीण एवं श्रुतियों के लुप्तप्रायहोने पर अपनी विलक्षण स्मरण-शक्ति द्वारा इनके पुनरुद्धार एवं वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना हेतु भगवान् श्रीविष्णु दत्तात्रेय के रूप में अवतीर्ण हुए। कथानक है कि श्रीनारदजीके मुख से महासती अनसूयाके अप्रतिम सतीत्व की प्रशंसा सुनकर उमा,रमा एवं सरस्वती ने ईष्र्यावशअपने-अपने पतियोंको उनके पातिव्रत्य की परीक्षा लेने महर्षि अत्रि के आश्रम भेजा। सती शिरोमणि अनसूयाने पातिव्रत्य की अमोघ शक्ति के प्रभाव से उन साधुवेशधारीत्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु व महेश) को नवजात शिशु बनाकर वात्सल्य भाव से स्तनपान कराया और तदनन्तर तीनों देवियों की क्षमा-याचना व प्रार्थना पर उन्हें पूर्ववत् स्वरूप प्रदान कर अनुगृहीत किया। अत्रि व अनसूयाका भाव समझकर त्रिदेव ने ब्रह्मा के अंश से रजोगुणप्रधानसोम, विष्णु के अंश से सत्त्वगुणप्रधानदत्त और शंकर के अंश से तमोगुणप्रधानदुर्वासा के रूप में माता अनसूयाके पुत्र बनकर अवतार ग्रहण किए। अत्रि मुनि का पुत्र होने के कारण आत्रेय और दत्त एवं आत्रेय के संयोग से दत्तात्रेय नामकरण हुआ।
यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त सोम व दुर्वासाने अपना स्वरूप एवं तेज दत्तात्रेयको प्रदान कर तपस्या के निमित्त वन-प्रस्थान किया। वे त्रिमुख, षड्भुज, भस्मभूषित अंग वाले मस्तक पर जटा एवं ग्रीवा में रुद्राक्ष माला धारण किए हैं। त्रिमूर्तिस्वरूप में उनके निचले, मध्य व ऊपरी दोनों हाथ क्रमश: ब्रह्मा, महेश एवं विष्णु के हैं। वे योगमार्गके प्रवर्त्तक,अवधूत विद्या के आद्य आचार्य तथा श्री विद्या के परम आचार्य हैं। इनका बीजमन्त्र द्रां है। सिद्धावस्थामें देश व काल का बन्धन उनकी गति में बाधक नहीं बनता। वे प्रतिदिन प्रात:से लेकर रात्रिपर्यन्तलीलारूपमें विचरण करते हुए नित्य प्रात: काशी में गंगा-स्नान, कोल्हापुर में नित्य जप, माहुरीपुरमें भिक्षा ग्रहण और सह्याद्रिकी कन्दराओंमें दिगम्बर वेश में विश्राम (शयन) करते हैं। उन्होंने श्रीगणेश, कार्तिकेय, प्रह्लाद, यदु, सांकृति, अलर्क, पुरुरवा, आयु, परशुराम व कार्तवीर्यको योग एवं अध्यात्म की शिक्षा दी। त्रिमूर्ति स्वरूप भगवान् श्री दत्तात्रेय सर्वथा प्रणम्य हैं: जगदुत्पत्तिकत्र्रे चस्थितिसंहारहेतवे। भवपाशविमुक्तायदत्तात्रेयनमोऽस्तुते॥