सनातन धर्म में व्रत/उपवास का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व

व्रत शब्द की उत्पत्ति (वृत्त वरणे अर्थात वरण करना या चुनना) से मानी गई है, । ऋग्वेद में वृत शब्द का प्रयोग इस प्रकार हुआ है- 'संकल्प' आदेश विधि निर्दिष्ट व्यवस्था वशता आज्ञाकारिता सेवा स्वामित्व व्यवस्था निर्धारित उत्तराधिकर वृत्ति आचारिक कर्म प्रवृत्ति में संलग्नता रीति धार्मिक कार्य उपासना कर्तव्य अनुष्ठान धार्मिक तपस्या उत्तम कार्य आदि। वृत से ही व्रत की उत्पत्ति मानी गई है।

श्रद्धालु एव भक्तगण देवों के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए अपने आचरण या भोजन को नियंत्रित करके उपवास रखते हैं। व्रत को दैवी आदेश या आचरण संबंधी नैतिक विधियों के अर्थ में लिया जाता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि इंद्र के सहायक मित्र विष्णु के कर्मों को देखो जिनके द्वारा वह अपने व्रतों अर्थात आदेशों की रक्षा करता है।

वैदिक संहिताओं में कहीं-कहीं व्रत को किसी धार्मिक कृत्य या संकल्प संलग्न व्यक्ति के लिए व्यवस्थित किया गया है। ब्राह्मण उपनिषदों में बहुधा अधिक स्थलों पर व्रत का दो अर्थों में प्रयोग हुआ है- एक धार्मिक कृत्य या संकल्प तथा आचरण एवं भोजन संबंधी रोक के संदर्भ में और दूसरा उपवास करते समय भक्ष्य अभक्ष्य भोजन के संदर्भ में।

धर्मसिंधु ने व्रत को पूजा आदि से संबंधित धार्मिक कृत्य माना है। अग्निपुराण में कहा गया है कि व्रत करने वालों को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए, सीमित मात्रा में भोजन करना चाहिए। इसमें होम एवं पूजा में अंतर माना गया है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में व्यवस्था है कि जो व्रत-उपवास करता है, उसे इष्टदेव के मंत्रों का मौन जप करना चाहिए, उनका ध्यान करना चाहिए उनकी कथाएं सुननी चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए।

इसमें होम योग एवं दान के महत्व को समझाया गया है। व्रतों में कम प्रयास से अधिक फलों की प्राप्ति होती है। व्रतों में इसी लोक में रहते हुए पुण्य फल प्राप्त हो जाते हैं। व्रत कोई भी कर सकता है।

भारतवर्ष में ईसा पूर्व एवं पश्चात व्रतों की व्यवस्था प्रचलित थी। कुछ व्रत ब्रह्मचारियों के लिए और कुछ सनातनी धर्मावलंबियों के लिए निश्चित थे। कालिदास वाड़.मय मृच्छकटिक रत्नावली आदि में इसका उल्लेख है। राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है। हेमादि में 700 व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने 1622 व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है।

किंतु अशौच अवस्था में व्रत नहीं करना चाहिए। जिसकी शारीरिक स्थिति ठीक न हो व्रत करने से उत्तेजना बढ़े और व्रत रखने पर व्रत भंग होने की संभावना हो उसे व्रत नहीं करना चाहिए।

व्रती में व्रत करते समय निम्नोक्त 10 गुणों का होना आवश्यक है। क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, देवपूजा, अग्निहवन, संतोष एवं अस्तेय। देवल के अनुसार ब्रह्मचर्य, शौच, सत्य एवं अमिषमर्दन नामक चार गुण होने चाहिए। व्रत के दिन मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए। पतित पाखंडी तथा नास्तिकों से दूर रहना चाहिए और असत्य भाषण नहीं करना चाहिए। उसे सात्विक जीवन का पालन और प्रभु का स्मरण करना चाहिए। साथ ही कल्याणकारी भावना का पालन करना चाहिए।