हर हिन्दू याद कर ले इन 15 मन्त्रों को


1. श्री महादेव जी

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्!!


(2). श्री गणेश जी

वक्रतुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ

*निर्विघ्नम कुरू मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा!!


(3). श्री हरी विष्णु जी

मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् गरुणध्वजः।

मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः॥


(4). श्री ब्रह्मा जी

ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा नमस्ते परमात्ने।

निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सदुयाय नमो नम:।।


5).( श्री कृष्ण जी

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।।


(6). श्री राम जी

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः !


(7). मां दुर्गा जी

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते


(8). मां महालक्ष्मी जी

ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो, धन धान्यः सुतान्वितः मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॐ ।।


(9). मां सरस्वती

*ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।

*विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।।


(10). मां महाकाली

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हली ह्रीं खं स्फोटय क्रीं क्रीं क्रीं फट !!


(11). श्री हनुमान जी

मनोजवं मारुततुल्यवेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठ।

वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं, श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥


(12). श्री शनिदेव जी

ॐ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम।छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम् ||


(13). श्री कार्तिकेय

ॐ शारवाना-भावाया नम: ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा, देवसेना मन: कांता कार्तिकेया नामोस्तुते


(14). काल भैरव

ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा


(15)


गायत्री मंत्र

*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

ईष्ट देव की कृपा पाएं,सकारात्मकता से


सकारात्मक सोच ऐसा कोई वरदान नहीं है जो केवल उन गुरुओं के पास होता है जो जीने का तरीका सिखाते हैं बल्कि अभ्यास द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में इसे अपना सकता है । सकारात्मक सोच को एक दृष्टांत द्वारा भी समझा जा सकता है उदाहरण के लिए एक गिलास पानी से आधा भरा है। 'गिलास आधा 'खाली' है'।

सकारात्मक सोच कैसे लायें :

हमेशा अच्छा सोचें।

देखने का नजरिया बदलो।

शिकायत मत करो।

परेशानी के ऊपर फोकस मत करो।

हमेशा हंसते रहो।

एक्सरसाइज करो।

ध्यान करो।

दूसरों को प्रोत्साहित करो।

ईश्वर को  पाने के लिए किसी लंबी चौड़ी पूजा पाठ साधना की आवश्यकता नहीं है


ईश्वर मिलता है सकारात्मकता से


सकारात्मकता से ही ईष्ट सिध्दि भी मिलती ह


सुन्दर कांड में श्रीरामजी स्वयं ही कह रहे हैं


निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।


विभीषण जी सदैव ही सकारात्मक रहते थे

उनकी भी पूर्वाभास शक्ति बहुत अद्भुत  विलक्षण थी

श्री हनुमान जब ब्राह्मण वेश मे उनके सम्मुख गये तब विभीषण जी कहते है

की तुम्ह हरि दासन्ह मंह कोई

मोरे हृदय प्रीति अति होई


मुझे लग रहा है कि तुम श्रीहरि के सेवकों में से एक  हो

तब हनुमान जी उन्हें अपने    वास्तविक रुप दिखाते हैं

कारण एक ही है

सकारात्मकता

आगे जब,रावण उन्हें लात मार कर निष्कासित करते हैं

तब भी वे सकारात्मक ही रहते हैं

अपने भाग्य को नीयती को प्रारब्ध को सहर्ष स्वीकार कर कहते हैं


तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा

रामु भेजें हित नाथ तुम्हारा


ईश्वर  आप को सद्बुद्धि दे


शबरी ने कोई पूजा पाठ नहीं की परंतु सकारात्मक रही

एक दिन राम आयेंगे


ईश्वर की प्राप्ति असंभव है

परन्तु दर्शन शीघ्र संभव है


इसलिए सदैव सकारात्मक रहे

आप जितनी भक्ति , जितनी पूजा पाठ करते हैं ,वो आपको ईश्वर के निकट ले जाने लगती है

और उस तक पहुंचते ही ईश्वर को अपने साथ लाने लगती है


पूजा पाठ, भक्ति, साधना,जप तप यज्ञ 

सभी देवी-देवताओं को निरंतर दिये गये

निमंत्रण मातरम है


जितना आप चलते हैं

उतना ही ईश्वर,ईष्ट  देवी देवता भी चलते हैं


आप तो पहुंच ही नहीं पाते हैं

आपके पहुंचने से पहले ही 

ईश्वर आप को मध्य मार्ग में स्वयं ही लेनै आ पहुंचता है


ईश्वर ऐसा ही है

ऐसा ही होता है


यही सब करते रहता है

जानिए पूजा-पाठ में उपयोग किये जाने वाले शब्दों के अर्थ

 


(1). पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नेवैद्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।

(2). पंचामृत – दूध ,दही , घृत, मधु { शहद } तथा मिश्री [ शक्कर ] इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

(3). पंचगव्य – गाय के दूध ,घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं।

(4). षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं।

(5). दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं।

(6). त्रिधातु –सोना , चांदी और लोहा कुछ आचार्य सोना ,चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं।

(7). पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा और जस्ता।

(8). अष्टधातु – सोना , चांदी, लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा ,कांसा और पारा।

(9). नैवैध्य –खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएं।

(10). नवग्रह –सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।

(11). नवरत्न – माणिक्य , मोती ,मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य।

(12). अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन , केसर , कस्तूरी ,,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर { देवपूजन हेतु }

      अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम , गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु ]

(13). गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।

(14). पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़।

(15). दशांश – दसवां भाग। 1/10

(16). सम्पुट –मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना।

(17). भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल

मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए ,जो कटा-फटा न हो।

(18). मन्त्र धारण –किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण

करना चाहिए।

(19). मुद्राएँ –हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।

(20). स्नान –यह दो प्रकार का होता है।बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।

(21). तर्पण –नदी , सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर , हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है। जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो , वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।

(22). आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।

(23).करन्यास –अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।

(24). हृद्याविन्यास –ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं।

(25). अंगन्यास – ह्रदय ,शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।

(26). अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं।अर्घ्य पात्र में दूध ,तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है

(27). पंचायतन पूजा – इसमें पांच देवताओं – विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजन किया जाता है।

(28). काण्डानुसमय – एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर ,अन्य देवता की पूजा करने को ‘काण्डानुसमय’ कहते हैं।

(29). उद्धर्तन – उबटन।

(30). अभिषेक – मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को ‘अभिषेक’ कहते हैं।

(31). उत्तरीय – वस्त्र।

(32). उपवीत – यज्ञोपवीत [ जनेऊ ]।

(33). समिधा – जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं।समिधा के लिए आक ,पलाश , खदिर , अपामार्ग , पीपल ,उदुम्बर ,शमी , कुषा तथा आम की लकड़ियों को ग्राह्य माना गया है।

(34). प्रणव –ॐ।

(35). मन्त्र ऋषि – जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध किया था ,वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।

(36). छन्द – मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को ‘छन्द’ कहते हैं। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मंत्र का उच्चारण चूँकि मुख से होता है अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

(37). देवता – जीव मात्र के समस्त क्रिया- कलापों को प्रेरित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं यह शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है ,अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है।

(38). बीज– मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यांग में किया जाता है।

(39). शक्ति – जिसकी सहायता से

बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व ‘शक्ति’

कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

(40). विनियोग– मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

(41). उपांशु जप – जिह्वा एवं होठों को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण को ‘उपांशुजप’ कहते हैं।

(42). मानस जप – मन्त्र , मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र

का उच्चारण करने को ‘मानसजप’ कहते हैं।

(43). अग्नि की जिह्वाएँ – अग्नि की 7 जिह्वाएँ मानी गयी हैं , उनके नाम हैं –

   1. हिरण्या 2. गगना 3. रक्ता 4. कृष्णा 

   5. सुप्रभा 6.बहुरूपा एवं 7. अतिरिक्ता।

(44). 1. काली 2.कराली 3. मनोभवा 4. सुलोहिता 5. धूम्रवर्णा 6.स्फुलिंगिनी एवं 7. विश्वरूचि।

(45). प्रदक्षिणा –देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं।

विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश और सूर्य आदि देवताओं की  क्रमशः 4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमाऐं करनी चाहियें।

(46). साधना – साधना 5 प्रकार

की होती है – 

     1.अभाविनी 2. त्रासी 3. दोवोर्धी

     4. सौतकी 5.आतुरी।

     [1] अभाविनी – पूजा के साधन

तथा उपकरणों के अभाव से , मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है , उसे‘अभाविनी’ कहा जाता है।

     [2] त्रासी –जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है , उसे ‘त्रासी’कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।

     [3] दोवोर्धी – बालक , वृद्ध , स्त्री ,

मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा‘दोर्वोधी’ कहलाती है।


[4] सौतकी -- सूतक में व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।


[5] आतुरी --रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें 

देवमूर्ति अथवा सूर्यमंडल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे – ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजनकरे तो इस पूजा को ‘आतुरी’ कहा जाएगा।

(47). अपने श्रम का महत्व –पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है।अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

(48). वर्जित पुष्पादि –

     [1] पीले रंग की कट सरैया , नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के फूल पूजा में नही चढाये जाते।

     [2] सूखे ,बासी , मलिन , दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प देवता पर नही चढाये जाते।

     [3] विष्णु पर अक्षत , आक तथा धतूरा नही चढाये जाते।

     [4] शिव पर केतकी , बन्धुक { दुपहरिया } , कुंद , मौलश्री , कोरैया , जयपर्ण , मालती और

जूही के पुष्प नही चढाये जाते।

     [5]दुर्गा पर दूब , आक , हरसिंगार , बेल तथा तगर नही चढाये जाते।

     [6] सूर्य तथा गणेश पर तुलसी नही चढाई जाती।

     [7] चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य पुष्पों की कलियाँ नही चढाई जाती।

(49). ग्राह्यपुष्प – 

    ~विष्णु पर श्वेत तथा पीले पुष्प , तुलसी

    ~ सूर्य , गणेश पर लाल रंग के पुष्प , 

    ~लक्ष्मी पर कमल,

    ~शिव के ऊपर आक , धतूरा , बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप से चढाये जाते हैं। 

    ~अमलतास के पुष्प तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता।

(50). ग्राह्य पत्र- – तुलसी , मौलश्री ,

चंपा , कमलिनी , बेल ,श्वेत कमल , अशोक ,

मैनफल , कुषा , दूर्वा , नागवल्ली , अपामार्ग ,

विष्णुक्रान्ता , अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं।

(51). ग्राह्य फल – जामुन , अनार , नींबू  , इमली , बिजौरा , केला , आंवला , बेर , आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं।

(52). धूप – अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष

रूप से ग्राह्य है ,यों चन्दन-चूरा , बालछड़ आदि का प्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है।

(53). दीपक की बत्तियां – यदि दीपक में अनेक

बत्तियां हों तो उनकी संख्या विषम रखनी चाहिए ।

   दायीं ओर के दीपक में सफ़ेद रंग की बत्ती तथा 

बायीं ओर के दीपक में लाल रंग की बत्ती डालनी चाहिए।

   

~~ अगर आप घर पर सपरिवार साथ हैं तो अपने बेटे एवं बेटी को अपने पोते एवं पोती को यह सब सिखाएं क्योंकि उन्हें हिंदू धर्म के विषय में ज्ञान होगा