दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंती पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया।
वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं की अकृतज्ञता कि सरकार ने शक संवत को स्वीकार कर लिया, लेकिन सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत को कहीं स्थान न दिया।
31 दिसंबर की आधी रात को नव वर्ष के नाम पर नाचने वाले आम जन को देखकर तो कुछ तर्क किया जा सकता है, पर भारत सरकार को क्या कहा जाए जिसका दूरदर्शन भी उसी रंग में रंगा श्लील-अश्लील कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में लगा रहता है और स्वयं राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र को नव वर्ष की बधाई देते हैं। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत से गहरा नाता है। इस दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं।
मांस-मदिरा का सेवन करने वाले लोग इस दिन इन तामसी पदार्था से दूर रहते हैं, पर विदेशी संस्कृति के प्रतीक और गुलामी की देन विदेशी नव वर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, श्लील-अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा अन्य बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभियान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है जबकि ईसवी सन के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नव वर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नव वर्ष से कोई संबंध नहीं। यही हम लोगों को भी समझना होगा।
हमारे देश से गोरे अंग्रेज तो चले गए मगर काले अंग्रेजों को छोड़ गए। ये काले अंग्रेज विदेशी परंपराओं और फूहड़ नाच गानों के ऐसे दीवाने हैं कि अपने देश की गरिमामयी सांस्कृतिक परंपराओं, मूल्यों और आचरण का इनके लिए कोई मूल्य नहीं है। संस्कृति के इस प्रदूषण के करेले में नीम का काम किया है सैटेलाईट चैनलों ने। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित विदेशी उत्सवों को इन खबरिया चैनलों पर खूब प्रचार मिलता हैं मगर हमारे अपने ही देश की परंपराओं और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रमों को लेकर इऩ चैनलों द्वारा हमेशा उदासीनता बरती जाती है। इसके बावजूद देश भर के और देश के बाहर बसे हमारे हजारों पाठकों ने हमसे आग्रह किया कि हम भारतीय नवसंवत्सर के महत्व, इसको मनाए जाने के तौर तरीके आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दें।
गुड़ी पड़वा और इसका महत्व:
हमें गर्व है कि हम इसाई कैलेंडर से 57 साल आगे हैं। इसाई कैलेंडर जहाँ अभी वर्ष 2011 तक ही पहुँचा है, वहीं हमारा भारतीय कैलेंडर 4 अप्रैल 2011को गुड़ी पढ़वा के दिन 2068 वे वर्ष में प्रवेश कर जाएगा। इसी दिन से चैत्र नवरात्र प्रारंभ होंगे जिसका समापन रामनवमी पर होगा। 04 अप्रैल 2011 से शुरू हो रहे नव संवत्सर 2068 पर कई संगठनों द्वारा हिन्दू नव वर्ष का स्वागत किया जाएगा।
ऐसे तो विश्व के विशाल धरातल पर अनेक प्रकार वर्षों (कैलेंडरों) का प्रचलन है। उनके आरम्भ के अनुसार भिन्न-भिन्न कारणों के साथ भिन्न-भिन्न समय में मनाये जाने की परंपरा है। अपनी-अपनी आस्था-श्रद्धा, परंपरा, विभिन्न देश-राष्ट्र, धर्म-जाति, समाज और सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार अपने-अपने तौर-तरीकों से नववर्ष बड़े धूमधाम से उत्साहपूर्वक मानते हैं। विशेष रूप से सम्पूर्ण विश्व में इसाई नववर्ष (३१ दिसम्बर की रात्रि और १ जनवरी के आरम्भ को लेकर) बड़े धूमधाम से मनाते हैं, किन्तु हमारा अपना भारतीय नववर्ष अति प्राचीन और वैज्ञानिक आधार लिये हुए है। हमारे धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्कारों के साथ भी जुड़ा हुआ है, अत: घर-घर में कुल धर्म के रूप में स्थापित भी हैं, इसे भव्यरूप में संगठित होकर मनाया जाना चाहिये।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि, सृष्टि्यादि, युगादि के आरंभ के साथ-साथ प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिवस से होने से यह भारतीय नववर्ष अति प्राचीन है। अरबों वर्षों की प्राचीनता इसके साथ जुड़ी हुई है। फिर उज्जैन कालगणना की सर्वसम्मत नगरी है, यही कालगणना के प्रतीक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर भी स्थित है, इसी विशिष्टता के कारण सम्राट विक्रम ने विक्रम संवत् प्रदान किया था तथा जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह ने उज्जैन में वेधशाला की स्थापना की थी। अत: उज्जयिनी की महत्ता और भारतीय नववर्ष की प्राचीनता को जन-जन तक पहुँचाने की दृष्टि से संवत् २०३५ (सन् १९७८ ई.) से नववर्ष की शुभकामना संदेश और नववर्ष को उत्सव का स्वरूप देते हुए भिन्न-भिन्न नगरों में भी इस उत्सव को स्थापित करने की दिशा में सतत प्रयास कर रहे हैं। संवत् २०५७ (सन् २००० ई.) से इस उत्सव को भव्य रूप में शास्त्रीय मर्यादाओं के साथ आयोजित किए जा रहे हैं।
क्या विशेषता है हमारे नववर्ष की?
भारतीय नववर्ष की विशेषता, कैसे मनाये नववर्ष?
वेद-पुराण, इतिहास और शास्त्रीय परंपराओं को जोड़कर नववर्ष मनाये जाने की रूपरेखा तैयार की गई है। उज्जैन में संवत्सर मनाने की प्राचीन परंपरा क्यों चलती आ रही है? उस पर भी विचार किया गया है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को सान्दीपनि स्मृति महोत्सव आदर्श गुरु शिष्य परंपरा को लेकर संवत् २०३५ से ही मनाया जा रहा है। श्रीकृष्ण जन्म को ५ हजार वर्ष से अधिक हो जाने के कारण ``व्यास-सान्दीपनि-श्रीकृष्ण पंचसहस्राब्दी पंच वर्षीय महोत्सव'' नाम देकर मना रहे हैं। हमारे प्रयास से नेपाल सहित देश के अन्य नगरों में भी यह उत्सव मनाया जा रहा है।
आओ हम सब मिलकर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय पर नववर्ष का महोत्सव मनावें और इसके लिये अन्य लोगों को भी प्रेरित करें।
यातो धर्मस्ततो जय:।
श्री नववर्ष मङ्गलम
(कल्पादी-सृष्ट्यादि-युगादि महोत्सव)
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नववर्ष आरम्भ
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय की प्रथम रश्मि के दर्शन के साथ नववर्ष का आरंभ होता है।
``मधौ सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:''
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिबादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। कल्पादि-सृष्ट्यादि-युगादि आरंभ को लेकर इस दिवस के साथ अति प्राचीनता जुड़ी हुई है। सृष्टि की रचना को लेकर इसी दिवस से गणना की गई है, लिखा है-
चैत्र-मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे%हनि ।
शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ।।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि के सूर्योदय के समय से नवसंवत्सर का आरंभ होता है, यह अत्यंत पवित्र तिथि है। इसी दिवस से पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया था।
इस तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुंभ योग में दिन के समय भगवान का प्रथम अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है-
कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।
रेवत्यां योग-विष्कुम्भे दिवा द्वादश-नाड़िका: ।।
मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।।
प्रकृति खुद स्वागत करती है इस दिन का
चैत्र शुक्ल पक्ष आरंभ होने के पूर्व ही प्रकृति नववर्ष आगमन का संदेश देने लगती है। प्रकृति की पुकार, दस्तक, गंध, दर्शन आदि को देखने, सुनने, समझने का प्रयास करें तो हमें लगेगा कि प्रकृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि पुरातन का समापन हो रहा है और नवीन बदलाव आ रहा है, नववर्ष दस्तक दे रहा है। वृक्ष-पौधे अपने जीर्ण वस्त्रों को त्याग रहे हैं, जीर्ण-शीर्ण पत्ते पतझड़ के साथ वृक्ष शाखाओं से पृथक हो रहे हैं, वायु के द्वारा सफाई अभियान चल रहा है, प्रकृति के रचयिता अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित कर बोराने की ओर ले जा रहे हैं, मानो पुरातन वस्त्रों का त्याग कर नूतन वस्त्र धारण कर रहे हैं। पलाश खिल रहे हैं, वृक्ष पुष्पित हो रहे हैं, आम बौरा रहे हैं, सरसों नृत्य कर रही है, वायु में सुगंध और मादकता की मस्ती अनुभव हो रही है।
shiit -व्यतीत होकर ग्रीष्म के आगमन के साथ मिला-जुला सुहाना मौसम अनुभव हो रहा है, यह सुहानी-सुगंधित-सुवासित, मादकता से युक्त वायु का स्पर्श सभी को आनंदित आंदोलित कर रहा है। प्रकृति की प्रसन्नता, खुशी-हास्य सर्वत्र बिखर रहा है। मानो एक बड़े उत्सव की यह साज-सज्जा है, सजावट है, समस्त भूमंडल एक विशाल सुसज्जित मंच के रूप में तैयार है। पक्षियों का कलरव, चहचहाहट, कोयल की कूक, उनकी स्वच्छन्द उड़ान एक संगीतमय वातावरण बनाते हुए अंतरिक्ष को सुसज्जित कर रहा है। पुष्पों की सुगंध से वायुमंडल `सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्', का पर्याय बन गया है। प्रकृति के द्वारा इत्रपान की व्यवस्था अनुभव हो रही है। पुष्पों फलों से लबालब वृक्ष अभिनंदन के लिए झुके हुए प्रसन्नचित्त, मुस्कराते, सुगंध बिखेरते हुए नववर्ष के आतिथ्य के लिए अपनी तैयारी दिखा रहे हैं।
पतझड़ के पश्चात वसंत में वसंत पंचमी के अवसर पर नवपल्लवित-पुष्पित पत्र-पुष्प और नव फसल को परमात्मा को अर्पण करते हैं।
होली के पश्चात चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को वसंतोत्सव के रूप में नववर्ष के महोत्सव का आरंभ हो जाता है, जो एक पखवाड़े तक चलते हुए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के सूर्योदय के अवसर पर नववर्ष का महोत्सव मनाया जाता है। इस प्रकार यह एकमात्र भारतीय नववर्ष है जो प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है, भव्य है, अद्वितीय है, महापर्व है।
पूर्णतः विज्ञान सम्मत है यह नव वर्ष
हमारे नये वर्ष को जानने के लिए किसी पंचांग या केलेन्डर की आवश्यकता नहीं है
ऊपर हमने लिखा है कि हमारा नया वर्ष प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। नये वर्ष आने से बहुत पहले ही प्रकृति का संकेत हमें प्राप्त होने लगता है। पतझड़ के पश्चात वृक्ष पौधे अंकुरित पल्लवित-पुष्पित, फलित होकर भूमंडल को सुसज्जित करने लगता है, यह बदलाव हमें नवीन परिवर्तन का आभास देने लगता है। प्रकृति के संकेत को सुने, समझे और देखें तो नए वर्ष की सन्निकटता को समझ सकते हैं।
आकाश व अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है। ग्रह-नक्षत्र-तारों आदि के दर्शन से उनकी गति-स्थिति, युति, उदय-अस्त से हमें अपना पंचांग स्पष्ट आकाश में दिखाई देता है। अमावस-पूनम को हम स्पष्ट समझ जाते हैं। पूर्णचंद्र चित्रा नक्षत्र के निकट हो तो चैत्री पूर्णिमा, विशाखा के निकट वैशाखी पूर्णिमा, ज्येष्ठा के निकट से ज्येष्ठ की पूर्णिमा इत्यादि आकाश को पढ़ते हुए जब हम पूर्ण चंद्रमा को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के निकट देखेंगे तो यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा है और यहां से नवीन वर्ष आरंभ होने को १५ दिवस शेष है। इन १५ दिनों के पश्चात जिस दिन पूर्ण चंद्र अस्त हो तो अमावस (चैत्र मास की) स्पष्ट हो जाती है और अमांत के पश्चात प्रथम सूर्योदय ही हमारे नए वर्ष का उदय है।
इस प्रकार हम बिना पंचांग और केलेंडर के प्रकृति और आकाश को पढ़कर नवीन वर्ष को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा दिव्य नववर्ष दुर्लभ है।
नव वर्ष और उज्जयिनी
देश के सबसे प्राचीन और समृध्द शहरों में से एक उज्जयिनी (जिसे आज उज्जैन भी कहा जाता है) को समस्त सिद्धांतकारों, पूर्वाचार्यों और ज्योतिर्विज्ञानवेत्ताओं ने कालगणना का केंद्र माना है। यहीं से समय की गणना होती है। सृष्ट्यादि- युगादि की गणना मानते हुए देश के समस्त पंचांगों की गणना उज्जयिनी मध्यमोदय लेकर होती है। यही कालगणना के प्रतीक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर पृथ्वी की नाभि पर स्थित है, और स्कंद पुराण में उल्लेख है-
कालचक्रप्रवर्तको महाकाल: प्रतापन:।
पृथ्वी की भूमध्य रेखा और भौगोलिक कर्क रेखा यही उज्जयिनी में मिलती है, इसलिए भी यह स्थान समय गणना के लिए महत्वपूर्ण है। ज्योतिष के प्राचीनतम सूर्य सिद्धान्त में उज्जयिनी के महत्व को इस प्रकार प्रतिपादित किया है-
राक्षसालय दैवौक:शैलयोर्मध्यसूत्रग: ।
रोहितकमवन्ती च यथा सन्निहितं सर: ।।
इसी बात को `सिद्धान्तशिरोमणि' में भास्कराचार्य ने इस प्रकार लिखा है-
यल्लङ्कोज्जययिनी-पुरोपरि कुरुक्षेत्रादि देशान् स्पृशत्।
सूत्रं-मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखा भुव:।।
अन्य सिद्धांतों में हाह्मस्फुट सिद्धांत, वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका, आर्यभटीय, ग्रहलाघव, केतकर का केतकी ग्रहगणित एवं तिलक का रैवतपक्षीय गणना आदि सभी ने उज्जयिनी मध्यमोदय को गणना का आधार स्वीकार किया है। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्यसेन ने भी उज्जैन के इस महत्व को स्वीकारा है।
अत: स्पष्ट है कि जहाँ समस्त भूमंडल के स्वामी पृथ्वी की नाभि पर स्थित होकर काल-समय का संचालन कर रहे हैं। ऐसी पवित्र और सिद्धभूमि उज्जयिनी में ही कल्पादि-सृष्टि्यादि युगादि नववर्ष महोत्सव आयोजित करने का विशेष महत्व है।
कैसे मनाएं अपना नववर्ष
धर्मशास्त्र के निर्देशानुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में नित्यकर्म से निवृत्त होकर अभ्यंग स्नान अथवा तीर्थ, नदी, सरोवर में स्नान करके शुद्ध पवित्र होवे। स्नान के पश्चात् अपने-अपने नगर के स्पष्ट सूर्योदय के समय (अथवा संपूर्ण देश में एक ही समय उज्जयिनी मध्यमोदय ६ बजकर २ मिनट पर) नववर्ष के शुभारंभ के अवसर पर सूर्य की प्रथम रश्मि के दर्शन के साथ ही शंख ध्वनि, ढोल-नगाड़े, तुरही, शहनाई आदि वाद्यों के साथ नववर्ष का उद्घोष करें। यह कार्य तीर्थ, नदी, सरोवर के तट पर अथवा धार्मिक स्थल पर एकत्रित होकर आयोजित करें।
नववर्ष के उद्घोष के पश्चात् समस्त उपस्थित आस्थावान् लोग पूर्व दिशा में मुख करके नीचे लिखे मंत्र से सूर्य को जल-पुष्प सहित अर्ध्य प्रदान करें।
आकृष्णेन रजसा व्वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च ।
हिरण्ययेन सविता रधेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।
सूर्य को जलार्ध्य प्रदान करने के पश्चात् नीचे लिखे मंत्र से उपस्थान करें।
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न आसुव ।
तश्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुश्चरत्
पश्येम शरद: शतम्, जीवेम शरद:शतम् शृणुयाम शरद: शतम् ।
प्रव्ववाम शरद: शुतम् अदीना: स्याम शरद: शतम् भूयश्र शरद: शतात्।
हे सविता देव, हमारे सभी दुखों को दूर करो। जिससे हमारा भला हो, वही प्राप्त कराओ। वह ज्ञानियों का हित करने वाला शुद्ध ज्ञान नेत्र पहले से उदित हुआ है। उसकी सहायता से सौ वर्षों तक नेत्रों से दिखाई देवे, सौ वर्षों का जीवन प्राप्त हो, सौ वर्षों तक श्रवण करें, सौ वर्षों तक अच्छी तरह से संभाषण करें, सौ वर्षों तक किसी के अधीन न रहे और सौ वर्षों से अधिक समय तक भी आनन्दपूर्वक रहें।
पश्चात् वैदिक संवत्सर मंत्र का पाठ करें
१. संवत्सरोसि परिवत्सरोसी दावत्सरोसीद् वत्सरोसि व्वत्सरोसि।
उखसस्ते कल्पन्ता-महोरात्रास्ते कल्पन्ता मर्द्धसास्ते कल्पन्ताम्मासास्ते कल्पन्तामृतवस्ते कल्पन्ता संव्वत्सरस्ते कल्प्पताम् ।
प्रेत्याएत्यै सञ्चाञ्च प्प्रसारय ।
सुपर्ण्ण चिदसि तया देवतयाङि्गरस्वद् धुवासीद।
२. समास्त्वाग्न ऋतवोव्वर्द्धयन्तु संवत्सरा ऋखयो जानि सत्या।
सन्दिव्ये नदीदिही रोचनेनव्विस्वा आभाहि प्प्रदिशस्चतस।।
सूर्य के द्वादश नामों के उच्चारण के साथ सामूहिक सूर्य नमस्कार करें।
वसन्तऋतु का स्मरण मंत्र से करें-
व्वसन्तेनऋतुना देवा व्वसवस्त्रिवृतास्तुता: ।
रथन्तरेण तेजसा हविरिन्द्रेव्वयोदधु ।।
सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की पूजन- जलसहित गंध, अक्षत, पुष्प लेकर देश-काल का उच्चारण करके इस प्रकार संकल्प करें।
`मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य स्वजन परिजनसहितस्य आयुरारोग्यैश्चर्यादिसकल- शुभफलोत्तरोत्तराभिवृद्धयर्थं ब्रह्मादि संवत्सर देवतानां पूजनमहं करिष्ये।
ऐसा संकल्प करके स्वच्छ पाठ के ऊपर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर चावल से अष्टदल कमल बनाकर ब्रह्माजी की सुवर्ण प्रतिमा स्थापित करें। गणेश-अम्बिका पूजन के पश्चात् ` ब्रह्मणे नम:' मंत्र से ब्रह्माजी का आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करें। प्रथम अवतार मत्स्य अवतार का भी पूजन करें।
ब्रह्माजी के लिए वैदिक मंत्र से ध्यान करें-
ब्रह्म जजान्प्रथमम्पुरस्ताद्धिसीमत सुरुचोव्वेन आव: ।
सबुध्न् याउपमा अस्यव्विष्ठा, सतश्चजोनिमसतश्चव्विव:।।
प्रथम मत्स्य अवतार का पूजन करके भागवत का यह मंत्र उच्चारण करें-
सोनुध्यातस्ततो राजाप्रादुरासीन्महार्णवे।
एक शृंर्गंधरो मत्स्यो हैमौ नियुत योजन: । भागवत ८।२४।४४
पूजन के पश्चात् विघ्न विनाश और वर्ष की सुमंगल भावना के लिए ब्रह्माजी की इस प्रकार प्रार्थना करें-
भगवैस्त्वत्प्रसादेन वर्षक्षेममिहास्तु मे ।
संवत्सरोपसर्गा मे विलयं यान्त्वशेषत: ।।
प्रार्थना के पश्चात् ध्वजपूजन, ध्वजवन्दन, कलशार्चन विधि विधान से करें। गीत, वाद्य, नृत्य, लोकगीतों के माध्यम से नववर्ष उत्साह और उमंग के साथ मनावें। आज के दिन नीम की पत्तियाँ खाने का विशेष महत्व है, लिखा है-
पारिभद्रस्य पत्राणि कोमलानि विशेषत:।
सुपुष्पाणि समानीय चूर्णंकृत्वा विधानत: ।
मरीचिं लवणं हिंगु जीरणेण संयुतम्।
अजमोदयुतं कुत्वा भक्षयेद्रोगशान्तये ।
नीम के कोमल पत्ते, पुष्प, काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा मिश्री और अजवाइन मिलाकर चूर्ण बनाकर आज के दिन सेवन करने से संपूर्ण वर्ष रोग से मुक्त रहते हैं। तीर्थ की आरती पूजन करके मंत्र पुष्पांजली और प्रसाद वितरण के पश्चात् नववर्ष का अभिनन्दन और परस्पर शुभकामना, मंगलकामना, नववर्ष मधुर मिलन आदि व्यवहारिक पक्ष के साथ पंचांग का फल श्रवण करें। नवसंवत्सर आरंभ के दिन नूतन वर्ष के पंचांग की पूजन, पंचांग का फल श्रवण, पंचांग वाचन और पंचांग का दान करने का उल्लेख धर्मशास्त्र में लिखा है। यह परंपरा आज भी गाँव-गाँव में प्रचलित है, गांव गुरु, गांवठी, पुरोहित आदि गांवों में पंचांग वाचन करते हैं। विद्वान का पूजन-अर्चन, ब्राह्मणों को भोजन, दक्षिणा वस्त्रादि से अभिनंदन करे।
अपने-अपने घरों में ध्वज लगावें (गुडी लगावें) ध्वज पूजन करें। घरों को दीप और विद्युत्सज्जा से आलोकित करें।
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:
पृथिवी: शांन्ति: आप: शान्ति:
औषधय: शान्ति: वनस्पतय:शान्ति:
विश्वेदेवा: शान्ति: ब्रह्मशान्ति:
सर्व शान्तिरेवशान्ति: सामाशान्तिरेधि ।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात् ।।
ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
(लेखक देश के जाने माने ज्योतिषाचार्य हैं और महर्षि सांदीपनि के वंशज हैं। इनके परिवार द्वारा विगत कई पीढि़यों से पंचांग का प्रकाशन किया जा रहा है, जिसे नारायण विजय पंचांग के रूप में दुनिया भर में प्रतिष्ठा प्राप्त है)
गुड़ी पड़वा और इसका महत्व
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वर्ष प्रतिपदा कहलाती है। इस दिन से ही नया वर्ष प्रारंभ होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘ । आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व ‘ग़ुड़ी पड़वा‘ के रूप में मनाया जाता है।
कहा जाता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसमें मुख्यतया ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधवारें, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पिक्षयों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का भी पूजन किया जाता है। इसी दिन से नया संवत्सर शुंरू होता है। अत इस तिथि को ‘नवसंवत्सर‘ भी कहते हैं।
शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। इसे औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। ‘उगादि‘ के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की थी।
चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा कहा जाता है। वर्ष के साढ़े तीन मुहुर्तों में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/प्रसादम‘ के रूप में बांटा जाता है। कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग भी दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद भी होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें—गुढ़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आममिलाया जाता है। गुढ़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक के रूप में होते हैं। भारतीय परंपरा में घरों में इसी दिन से आम खाने की आम का रस बनाने की और आम के रस की मिठाई बनाने की शुरुआत होती है।
गुड़ी पड़वा की लोक कथा:
शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ।
एक कथा यह भी है कि इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए थे। आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को गुड़ीपडवा नाम दिया गया।
गुड़ी पड़वा के साथ ही नौ दिन की चैत्र की नवरात्रि शुरु हो जाती है। नौ दिन तक चलने वाली यह नवरात्रि दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम और सीता के विवाह के साथ सम्पन्न होती है।