इसे श्राद्ध कहते हैं ?

बजुर्गों का तिरस्कार बाद के लाखों त्र्प्नों से भी क्षमा योग्य नही हो सकता,न हो पायेगा...


आज मुझे स्मरण कर रहे हो ?
या पारिवारिक मिलन ?
या मिलन के नाम पर तर्पण ?
शायद इसे श्राद्ध कहते हैं |


पर जब मैं भूलोक पर था,
तुम्हारी यह श्रद्धा कहीं खो गयी थी,
हम बूढ़े हो गए थे,शायद अधूरे रह गए थे,
जीवन की संध्या में हम त्रस्त थे,
तुम हर संध्या में व्यस्त थे...


जीवन की शाम भी बढ़ी अजीब होती है,
इंसा तनहा होते हैं,जब मौत करीब होती है...


हम अटके हुए थे,अब एक शून्य में,
पहले लटके हुए थे,
अपने ही आशियाने के वृधाश्रम में...


बुदापे से गुजरता हर किसी का सफर है,
पर आज इस हकीकत से हर बच्चा बेखबर है...


सिमट गए थे एकाकी हो एक कमरे में,
जीते जी असमय ही अपने ही समय में,
एक बिता हुए समय सा हो गए थे...


कितने प्रसंग जुर्ढे थे तुम्हारे जन्म से,
तुम्हारे जवान होने तक,
नौकरी से लेकर घोडी चड़ने/डोली चड़ने तक...
और हम एक दम अप्रसांगिक हो गए थे...


जाती हुई धुप में तुम सेकते रहे,
अपना वर्तमान,तलाशते रहे अपनी संतान का भविष्य,
और हम हो चुके थे शून्य...


कितने अकेले थे उस कमरे में,
न कोई आता न कोई जाता,
महीने बतियाने को तरसते थे हम...


आँखे थक जाती तुम्हें निहारने को,
बस मोबाइल की घंटी बन चुकी थी,
तुम्हारे हमारे बीच का रिश्ता...


बचपन में तुम नहीं सह सकते थे,
एक पल की भी दूरी,
जीवन की सांझ में हम बन गए,
तुम सब की मजबूरी...


एक गिलास पानी को तरस गए हम,
आज तुम मंदिर में कभी नदी के घात पर,
हमें दे रहे हो तिलांजली,
धन्य है तुम्हारी श्रद्धा,तर्पण और समर्पण 


इसी श्रद्धा और तर्पण को हम जीते जी तरसते रहे,
काश हमारी जीवित आत्मायों को,
यह तृप्ति भूलोक में मिल जाती,
तो यह आत्मा आज शून्य में न तडपती...

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