अपने अंदर के कृष्ण को प्रकट करें

कृष्ण की मनमोहिनी माखनचोर वाली और रासलीला में लीन छवि के अलावा एक और छवि भी है-कल्याणकारी, रक्षक और पालनहार वाली छवि। संकट से रक्षा करने वाला, दुखों को हरने वाला, अधर्म या पाप का नाश करने वाला।

यह संकट का ही दौर है। दुख, तनाव बहुत बढ़ गए हैं। स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ रही हैं और मनोरोग भी। संस्कारों के पतन का दौर है! हर क्षेत्र में झूठ-बेईमानी फल रही है! मानवीय रिश्ते बिखर रहे हैं। संकट धरती पर जीवन के अस्तित्व का भी है। ग्लोबल वॉर्मिन्ग और पर्यावरण असंतुलन के कारण धरती पर जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है।

गीता में कृष्ण ने कहा है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं प्रकट होता हूं। साधु पुरुषों का उद्धार करने और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूं।

दुखों से घिरकर हम ईश्वर को याद करते हैं। पूजा-पाठ, दान-पुण्य या गुरुओं की कृपा से चमत्कार होने की आशा रखते हैं। किसी अवतार के प्रकट होने की उम्मीद लगाते हैं। पर यह सब मन का भुलावा ही होता है। जो भाग्य के भरोसे नहीं बैठते, वे दुखों को कम करने के लिए 'जीने की कला' सीखते हैं। युक्तिसम्मत ढंग से समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं। अंग्रेजी में कहावत है 'गॉड हेल्प्स दोज़ हू हेल्प दैम सेल्फ्स।'

हमें अपना रक्षक स्वयं बनना होगा। क्योंकि देखा जाए तो बहुत सारे दुखों-कष्टों को हम स्वयं जन्म देते हैं। अपनी संकीर्ण सोच, गलत आदतों व मनोविकारों के चलते हम अपने लिए स्वयं समस्याएं पैदा कर लेते हैं। जब हम संकट पैदा करना जानते हैं, तो उसका हल भी जानते होंगे। कृष्ण का गीता का संदेश हमें 'रक्षक' की इसी भूमिका के लिए तैयार करता है। गीता हमें 'जीने की कला' सिखाती है।

दुखों का एक मूल कारण है लालच, अनियंत्रित उपभोग, इच्छाओं पर वश न रखना। देखा जाए, तो पर्यावरण असंतुलन, स्वास्थ्य समस्याएं और सामाजिक विषमता या अन्याय के मूल में यही कारण है। लालच और मोह ही क्रोध, भय जैसे मनोविकारों को जन्म देता है। बहुत-से कष्टों का जन्म हमारे अपने मन में ही होता है। हमारे ही मनोविकार हमारे लिए समस्या पैदा करते हैं।

क्रोध करने वाला व्यक्ति अपना नुकसान स्वयं करता है। वह कभी शांति नहीं पाता। ईर्ष्या करने वाला व्यक्ति सदा बेचैन रहता है। दूसरों का सुख, उसे दुख की ओर धकेलता है। झूठ बोलने वाले की समस्याएं अलग हैं। एक झूठ को छिपाने के लिए उसे न जाने कितने झूठ बोलने पड़ते हैं। अहंकार भी ऐसा मनोविकार है जो व्यक्ति को यथार्थ से दूर करता है। अहंकारी व्यक्ति समाज से कट जाता है।

गीता मनोविकारों से मुक्ति पर जोर देती है। मनुष्य अपने मन पर विजय प्राप्त करे। कहा भी गया है 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।' गीता में ऐसे तमाम आध्यात्मिक मूल्यों और सदाचारों का उल्लेख है जिनके बल पर एक सुखी व संतुष्ट जीवन की नींव रखी जा सकती है। जैसे अहंकार से मुक्ति, अक्रोध, मन-वचन व शरीर से किसी को कष्ट न देना, क्षमा भाव, प्रिय भाषण, मन की स्थिरता, मन व इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह आदि।

मनोविकारों की तरह पर्यावरण असंतुलन के लिए भी मनुष्य का लालच और अनियंत्रित उपभोक्तावाद काफी हद तक उत्तरदायी है। गीता में बताया गया है कि सूर्य, वायु, नक्षत्रों, पर्वतों, जलाशयों, नदियों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, जलचरों और जंतुओं में जो श्रेष्ठतम तत्त्व है -वह ईश्वर है। ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। इसलिए प्रकृति की रक्षा सच्ची ईश्वर भक्ति है। जन्माष्टमी के इस पावन पर्व पर हम अपने भीतर ही कृष्ण को जन्म दें, जो मनोविकारों, दुराचरणों और दुष्कर्मों से हमारी व इस सृष्टि की रक्षा करे!

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