ज्ञानानन्दमयं देवं निर्मलं स्फटिकाकृतिम्।
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे॥
ओंकारमाद्यं प्रवदन्ति संतो वाचः श्रुतीनामपि यं गृणन्ति।
गजाननं देवगणानतांघ्रिं भजेऽहमर्द्धेन्दुकृतावतंसम्॥
'जो ज्ञान तथा आनंद के स्वरूप हैं, विनिर्मल स्फटिक तुल्य जिनकी आकृति है, जो समस्त विद्याओं के परमाधार हैं, उन श्री गणेश जी की मैं उपासना करता हूं। जिनको संत लोग आद्य ओंकार कहते हैं, जिनके सिर पर अर्धचन्द्र शोभा पाता है तथा सभी देवतागण जिनके चरणों पर नतमस्तक होते हैं, उन गजमुख श्री गणेशजी की मैं वंदना करता हूं।'
श्री गणेशजी की आराधना अनादिकाल से भारत में प्रचलित है। कुछ आधुनिक लोग पाश्चात्य मतों से प्रभावित होकर इस भ्रान्ति में पड़ते हैं कि गणेशजी की उपासना वैदिक नहीं है, अपितु इसका स्वरूप अर्वाचीन काल में प्रचलित हुआ। लेकिन वेद तथा आरण्यकों में गणपति-मंत्र तथा गणपति-गायत्री की उपलब्धि होती है, जिनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि गणपति उपासना वेदविहित है।
'गणेश' या 'गणपति' नाम की विवेचना
मनद्वारा ग्राह्य तथा वाक्द्वारा वर्णनीय सम्पूर्ण भौतिक जगत् को तो 'ग' कार से उत्पन्न हुआ जानें तथा मन और वाक् से अतीत ब्रह्मविद्यास्वरूप परमात्मा को 'ण' कार समझें। 'अध्यात्म विद्या परमात्मा का स्वरूप है- 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्' (गीता 10 । 32)। परमात्मा के चिंतन तथा वर्णन में मन तथा वाणी समर्थ नहीं है।
' यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।'
(तैत्तिरीय. 2 । 4)
'न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा॥' (मुण्डकोपनिषद् 3 । 8)
इस भौतिक जगत् तथा अध्यात्म विद्या के स्वामी 'गणेश' कहलाते हैं-
मनोवाणीमयं सर्वं गकाराक्षरसम्भवम्।
मनोवाणीविहीनं च णकारं विद्धि मानद।
तयोः स्वामी गणेशोऽयं योगरूपः प्रकीर्तितः॥
सम्प्रज्ञातसमाधिस्थो गकारः कथ्यते बुधैः।
असम्प्रज्ञातरूपं वै णकारं विद्धि॥
तयोः स्वामी गणेशोऽयं शान्तियोगमयस्सदा॥
'ग' कार सम्प्रज्ञात-समाधि के तथा 'ण' कार असम्प्रज्ञात-समाधि के स्वरूप हैं। इन दोनों के स्वामी 'गणेश' कहलाते हैं।
गकारः कण्ठोर्ध्वं गजमुखसमो मर्त्यसदृशो
णकारः कण्ठाधो जठरसदृशाकार इति च॥
अधोभागः कट्यां चरण इति हीशोऽस्य च तनुः। (गणेशमहिम्नः स्तोत्र 9)
'ग' कार कण्ठ के ऊर्ध्व भाग गजमुख का तथा 'ण' कार कण्ठ से उदर तक के भाग तथा 'ईश' कटि तथा चरण का संकेत देते हैं।
गजानन होने का रहस्य
यस्माज्जातमिदं यत्र ह्यन्ते गच्छति महामते।
तद्वेदे गजशब्दाख्यं शिरस्तत्र गजाननः॥ (मुद्गलपुराण)
'गकार' से गमन (लय) और 'जकार' से जन्य (उत्पत्ति) की ओर संकेत किया गया है। ये ही दोनों अक्षर वेद में 'गज' नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी के कारण गणेशजी 'गजानन' कहे गए हैं।' गणेशजी का गजवदन संपूर्ण जगत् के सृजन, पालन तथा लय की सूचना देता है-
'सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।' (गणपत्यथर्वशीष. 5)
एकदन्त का रहस्य
एकशब्दात्मिका माया देहरूपा विलासिनी।
दन्तस्सत्तात्मकः प्रोक्तः.....।
मायाया धारकोऽयं वै सत्तामात्रेण संस्थितः।
'एक' शब्द बाह्य शरीररूपी माया का तथा 'दन्त' शब्द सत्तारूप परमात्मा का संकेत है। 'एकदन्त' शब्द माया का आलम्बन किए हुए सगुणरूपी गणेश का बोधक होता है।
श्री गणेशजी की आराधना अनादिकाल से भारत में प्रचलित है। कुछ आधुनिक लोग पाश्चात्य मतों से प्रभावित होकर इस भ्रान्ति में पड़ते हैं कि गणेशजी की उपासना वैदिक नहीं है, अपितु इसका स्वरूप अर्वाचीन काल में प्रचलित हुआ। लेकिन वेद तथा आरण्यकों में गणपति-मंत्र तथा गणपति-गायत्री की उपलब्धि होती है, जिनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि गणपति उपासना वेदविहित है।
'गणेश' या 'गणपति' नाम की विवेचना
मनद्वारा ग्राह्य तथा वाक्द्वारा वर्णनीय सम्पूर्ण भौतिक जगत् को तो 'ग' कार से उत्पन्न हुआ जानें तथा मन और वाक् से अतीत ब्रह्मविद्यास्वरूप परमात्मा को 'ण' कार समझें। 'अध्यात्म विद्या परमात्मा का स्वरूप है- 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्' (गीता 10 । 32)। परमात्मा के चिंतन तथा वर्णन में मन तथा वाणी समर्थ नहीं है।
' यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।'
(तैत्तिरीय. 2 । 4)
'न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा॥' (मुण्डकोपनिषद् 3 । 8)
इस भौतिक जगत् तथा अध्यात्म विद्या के स्वामी 'गणेश' कहलाते हैं-
मनोवाणीमयं सर्वं गकाराक्षरसम्भवम्।
मनोवाणीविहीनं च णकारं विद्धि मानद।
तयोः स्वामी गणेशोऽयं योगरूपः प्रकीर्तितः॥
सम्प्रज्ञातसमाधिस्थो गकारः कथ्यते बुधैः।
असम्प्रज्ञातरूपं वै णकारं विद्धि॥
तयोः स्वामी गणेशोऽयं शान्तियोगमयस्सदा॥
'ग' कार सम्प्रज्ञात-समाधि के तथा 'ण' कार असम्प्रज्ञात-समाधि के स्वरूप हैं। इन दोनों के स्वामी 'गणेश' कहलाते हैं।
गकारः कण्ठोर्ध्वं गजमुखसमो मर्त्यसदृशो
णकारः कण्ठाधो जठरसदृशाकार इति च॥
अधोभागः कट्यां चरण इति हीशोऽस्य च तनुः। (गणेशमहिम्नः स्तोत्र 9)
'ग' कार कण्ठ के ऊर्ध्व भाग गजमुख का तथा 'ण' कार कण्ठ से उदर तक के भाग तथा 'ईश' कटि तथा चरण का संकेत देते हैं।
गजानन होने का रहस्य
यस्माज्जातमिदं यत्र ह्यन्ते गच्छति महामते।
तद्वेदे गजशब्दाख्यं शिरस्तत्र गजाननः॥ (मुद्गलपुराण)
'गकार' से गमन (लय) और 'जकार' से जन्य (उत्पत्ति) की ओर संकेत किया गया है। ये ही दोनों अक्षर वेद में 'गज' नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी के कारण गणेशजी 'गजानन' कहे गए हैं।' गणेशजी का गजवदन संपूर्ण जगत् के सृजन, पालन तथा लय की सूचना देता है-
'सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।' (गणपत्यथर्वशीष. 5)
एकदन्त का रहस्य
एकशब्दात्मिका माया देहरूपा विलासिनी।
दन्तस्सत्तात्मकः प्रोक्तः.....।
मायाया धारकोऽयं वै सत्तामात्रेण संस्थितः।
'एक' शब्द बाह्य शरीररूपी माया का तथा 'दन्त' शब्द सत्तारूप परमात्मा का संकेत है। 'एकदन्त' शब्द माया का आलम्बन किए हुए सगुणरूपी गणेश का बोधक होता है।
1 comment:
not readable
could you possibly put it in plain english??
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