वरदान है मनुष्य योनी ...


मनुष्य जीवन बड़ी मुश्किल से मिलता है|सब को पता है की चौरासी लाख योनियों के बाद ही मनुष्य जीवन नसीब होता है |इस श्रेष्ठ योनि को तो हमने पा लिया मगर मूल पहचान यानी मनुष्यता को हम खोते जा रहे हैं|

"अवर योनी तेरी पनिहारी ,
इस धरती पर तेरी सिक्दारी |"

यानि मानव-योनि सबसे उत्तम है|इस योनि का उदेश्य भी उत्तम होगा,ध्येय भी उत्तम होगा |

यदि इस उत्तम शरीर को पाकर भी मानव वही काम करता रहा ,जो पशु भी कर लेते हैं,तो इस जन्म का सदुपयोग ही क्या हुआ ?अगर वह मकानों के बनाने में ही लगा रहा,तो फिर क्या विशेषता है ?पक्षी भी मकान बनाते हैं,एक चिड़िया भी पेड़ की टहनी के ऊपर तिनका-तिनका इकट्ठा करके बहुत ख़ूबसूरत घोंसला बना लेती है|एक छोटी सी चींटी भी जो बड़ी मुश्किल से दिखाई देती है ,वह भी कहीं न कहीं सुराख़ करके रहने का स्थान बना लेती हैं |अगर हमारे घरों में ओलाद हो जाती है तो उनके घरों में भी हो जाती है |
मनुष्य में लालच इस तरह हावी हो चूका है की हमें भले बुरे की पहचान नही रही |पशुयों की तरह एक दुसरे पर झपट पड़ते हैं,एक दुसरे को लहुलुहान कर देते हैं|
भाई-भाई को धोखा दे रहा है |बेटा बजुर्ग बाप को घर से निकाल रहा है |जिस माँ की कोख से जन्म लिया,उसकी सेवा करने की जगह घर से बेघर कर उसे बेइज्जत कर रहा है|मनुष्य मैं अगर मनुष्यता नही रही ,तो फिर जैसा की कहा गया है की वह इस धरती पर पशु सद्र्श है-

"मनुष्यरूपेण मृगाश चरन्ति |"

यह जीवन प्रभु परमात्मा का बड़ा आशीर्वाद है |इस जिन्दगी का हमें भरपूर फायदा उठाना चाहिए |इस जिन्दगी में आने का उदेश्य प्रभु की प्राप्ति है |

इस की महानता तभी है,जब यह निराकार परमात्मा से नाता जोड़ लें|यही मानव शरीर का ध्येय माना गया है|इसी से मानव-तन की महत्ता है|लेकिन ऐसा है नही |यहाँ जन्म लेने के बाद हम माया के भंवर जाल में,इस दुनिया रूपी दल दल में अन्दर तक धंसते जा रहे हैं|

जैसे एक बर्तन होता है,जिसमे बहुत कीमती चीज़े पड़ी हुई हैं,तो उस बर्तन की कीमत पड़ जाती है ,उस बर्तन की बहुत संभाल और निगरानी की जाती है|लेकिन जिस बर्तन में कूड़ा-करकट पड़ा हुआ होता है,उस बर्तन की कोई परवाह नही होती है|इसी तरह से हमें जो यह मनुष्य-तन मिला है,इसका मोल पड़े बिना रह जाता है,यदि निराकार-प्रभु को ,हरी-ईशवर को प्राप्त नही करते |

जीवन की हम असलियत से अनजान हैं की यह सब कुछ तो यहीं रह जाना है|खाली हाथ आये थे खाली हाथ ही वापिस जाना है|सांसारिक सुखों की खोज में हमने अपना सारा समय नष्ट कर दिया और दूसरी दुनिया के लिए कुछ भी नही कमाया|

स्वार्थ हमारे जीवन में इस कदर हावी हो चूका है की हम उस से ऊपर उठ कर कुछ भी सोच नही पा रहें|हद तो यह है की उस प्रभु-परमात्मा की कृपा पाने के लिए हम उसे उसी की और से उपहार स्वरुप दी गयी चीजों से लुभाने का असफल प्रयास करते हैं|यह कतई नही सोचतें हैं की यह सब कुछ तो उसी परमात्मा की देन हैं|उसे भला इन चीजों की क्या भूख है|उसे भक्त का प्रेम चाहिए|आस्था,विस्वास और सचे भाव से अर्पित दो फूल ही उसकी कृपा का अधिकारी बनने के लिए पर्याप्त है|

मनुष्य की अज्ञानता यह है की वह अपने को शरीर ही माने बैठा है की "मैं "यह शरीर ही हूँ |"यह शरीर तो हमेशा रहने वाला नही है|यह तो पांच तत्वों का पुतला है|जब इन पांच तत्वों से इसका नाता टूट जाता है तो इसका अंत हो जाता है|वह चेतन -सत्ता कोन-सी है ,जिसकी बदोलत शरीर की कीमत है?

जब मूल सत्य परमात्मा की पहचान हो जाती है ,फिर अपने आप की भी पहचान हो जाती है की "मैं"केवल यह बाहर से नजर आने वाल सवरूप ही नहीं ,केवल यह शरीर ही नहीं,"मैं"असल में एक ऐसी सत्ता हूँ,जो इस प्रभु ,इस हरी का ही नूर है,इसी का अंश है|इस जानकारी से ही मनुष्य योनि की कीमत पडती है,इसी के कारण मानव शरीर का महत्व है|

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